‘बुद्धजीिवयों’ ने अयोध्या के निर्णय पर की सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना!
नेशनल एलाएंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) ने कहा, ‘‘यह निर्णय बहुत ही उत्तेजक है और मुसलमान समुदाय को यह एहसास दिलाता है कि इस देश के नागरिक होने के बावजूद, कानून के समक्ष उनके अधिकार बराबर नहीं हैं!’’
मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, बिनायक सेन जैसे नाम शामिल हैं एनएपीएम में
नई दिल्ली
श्रीराम जन्मभूमि पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पहले पूरे देश में सद्भावना का वातावरण बनाने के प्रयास किए गए थे। इसके लिए न केवल पुलिस प्रशासन बल्कि अन्य संगठनों और राजनीतिक दलों ने भी निर्णय की स्वीकार करने और जीतने वाले से इसका जश्न न मनाने का आग्रह किया था और साथ ही सोशल मीडिया पर भी वातावरण खराब न हो इसके लिए दिशा- निर्देश जारी किए गए थे तथा भड़काऊ पोस्ट और कमेंट करने वालों कि विरुद्ध कार्रवाईयां भी की गई हैं। लेकिन बुद्धिजीवी का चोगा पहनकर बैठे कुछ लोगों को इससे कुछ भी लेना -देना नहीं हैं।
अब तक एक विचार और सत्ता की आलोचना करने वाले इन लोगों ने इस बार सर्वोच्च न्यायालय को भी नहीं छोड़ा। आप स्वयं पढ़िए इन्होंने इस मामले में जो प्रेस नोट जारी किया है उसके प्रमुख अंश –
‘‘सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद अयोध्या में शन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, अयोध्या मामले पर सर्वोच्च न्यायालय के 5 न्यायमूर्ति की खंडपीठ के ‘सर्वसम्मती’ से दिए गए फैसले की निंदा करता है। इस निर्णय से स्पष्ट लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 450 साल पुरानी बाबरी मस्जिद के विध्वन्स्कारियों को कानून के समक्ष जवाबदार ठहराने के बजाय पुरस्कृत किया गया है | यह हमारे संविधान का उल्लंघन है और बहुसंख्यवाद एवं भीड़तन्त्र को वैद्यता देता है| यह फैसला देश की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा पर एक कड़ा प्रहार है| सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला विरोधाभासों से भरा हुआ है और समानता, बंधुत्व जैसे मूल्यों का सिर्फ उपदेश देता है पर असल में इन सिद्धांतों का उल्लंघन करता है|
यह फैसला तर्क की कसौटी पर भी खरा नहीं उतरता| आस्था को अपने निर्णय में इतनी जगह देकर सर्वोच्च न्यायालय ने एक खतरनाक द्वार खोल दिया है जबकि न्यायालय ने खुद, सुनवाई की शुरूआत में ही स्पष्ट किया था कि ‘टाइटल के विवाद में फैसला साक्ष्यों के आधार पर किया जाएगा’। एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकारा है कि ‘विवादित स्थान’ पर मस्जिद थी, मस्जिद के नीचे मंदिर का प्रमाण नहीं है (एक गैर इस्लामिक ढांचा था, ऐसा माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना), 1949 में गैर कानूनी रूप से मस्जिद परिसर में मूर्ति स्थापित की गयी, 1992 में गैर कानूनी रूप से मस्जिद को गिराया गया| मगर दूसरी तरफ न्यायालय मस्जिद की जगह मंदिर खड़ा करने का निर्देश देता है, जो तर्क सांगत न होने के साथ-साथ बुनियादी कानूनी सिद्धांतों और प्राकृतिक न्याय की अवहेलना है ! इस कमी को छुपाने के लिए न्यायालय ‘मस्जिद के पुनर्वास’ के लिये 5 एकड़ की भूमि आवंटित करता है |
5 एकड़ ज़मीन देना एक अभूतपूर्व कदम है क्यूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए अनुछेद 142 का उपयोग किया है जो कई नई समस्याओं को जन्म देगा| उत्तर प्रदेश केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड अपने कानूनी अधिकारों के लिए लड़ रहा था, समस्या मस्जिद के लिए ज़मीन खोजने की नहीं थी| इसलिए यह निर्णय बहुत ही उत्तेजक है और मुसलमान समुदाय को यह एहसास दिलाता है कि इस देश के नागरिक होने के बावजूद, कानून के समक्ष उनके अधिकार बराबर नहीं हैं ! सर्वोच्च अदालत से इस प्रकार का सन्देश बहुत ही चिंताजनक है, खासकर जब आज के दौर में मुसलमान समुदाय को विशेष रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है | ऐसा लगता है कि न्यायालय ज़मीन दे कर उन पर कोइ बहुत बड़ी कृपा कर रहा है | जिस पक्ष ने मस्जिद गिराया, उन्ही को उस मस्जिद के नीचे का ज़मीन ‘हक़’ के रूप में देना, संविधान के मूल्यों और सिद्धांतों का ‘ऐतिहासिक अपमान’ है!”
इसके पश्चात इस प्रेस नोट में लिखा गया है कि
इन तथ्यों को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि 1992 की रथयात्रा से लेकर 2002 का गुजरात नरसंहार और लगातार देश को सांप्रदायिकता की आग में झोकने वाले हिंसक संगठन, राजनीतिक दल व व्यक्ति आज सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं। बड़ी विडंबना है कि आज यही सांप्रदायिक ताकतें तेज स्वर में बाकियों को उपदेश दे रहे हैं कि ‘कड़वाहट पीछे छोड़ देनी चाहिए’ क्यूंकि ‘न्यू इंडिया’ में शांति और सद्भावना ज़रूरी है | गौरतलब है कि धारा 370 की समाप्ती और कश्मीर में 100 दिनों की ताला-बंदी, तीन-तलाक का सांप्रदायिक अपराधीकरण, प्रस्तावित नागरिकता संशोधन कानून (CAB) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) के प्रस्तावित देश-व्यापीकरण के साथ, अब सर्वोच्च न्यायालय का ‘अयोध्या निर्णय’ उनको ज़्यादा बल और उत्साह ही नहीं, कानूनी संरक्षण भी देता है, उनके ‘हिन्दू राष्ट्र’ की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए.
अगर सर्वोच्च न्यायालय को यह लगा कि ‘देश की शांति’ बनाए रखने के लिए यह निर्णय ज़रूरी था, तो उन्हें यह स्पष्ट कर देना चाहिए था कि मुसलमानों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है और उनसे देश के लिए बलिदान माँगा जा रहा है | ऐसा भी न कहते हुए, इस निर्णय को ‘न्याय’ कहना अन्याय ही है |
इसके बाद इस प्रेस नोट में यह भी कहा गय.ा है कि इस अलोचना /टिप्पणी करने वालों के खिलाफ कोई मुकदमा या कार्रावाई न हो। आप स्वयं पढ़िए
हम मांग करते हैं कि सर्वोच्च अदालत अपने इस त्रुटिपूर्ण फैसले का संविधान के ढाँचे में पुनर्विचार करे और ‘आस्था’ के आधार पर नहीं, तर्क, कानून और न्याय के आधार पर निर्णय दे ! यह इसलिए भी ज़रूरी है क्यूंकि यह सिर्फ एक धर्म स्थल का मामला नहीं है और इस फैसले के आधार पर संविधान का उल्लंघन करने वालों और देश में नफरत फ़ैलाने वालों को कोई मौका नहीं मिलना चाहिए| हम यह भी मांग करते हैं कि इस फैसले पर तर्क और कानून की मर्यादा में आलोचना / टिप्पणी करने वालों पर कोई मुकदमा या कार्यवाही न हो ! मस्जिद गिराने के लिए ज़िम्मेदार सभी लोगों पर कम से कम अब तो कानूनी कार्यवाही होना चाहिए !
क्या है एनएपीएम ?
नेशनल एलाएंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) दर्जनों संगठनों का एक मोर्चा है। इनका झुकाव वामपंथ की ओर है। नर्मदा बचाओ आंदोलन की मुखिया मेधा पाटकर इसका प्रमुख घटक हैं।
… और एक इंजीनियरिंग छात्र
इसके उलट जिम्मेदारी समझने का एक मामला इंदौर में देखने में आया। हिमांशु जोशी नाम का इंजीनियरिंग का छात्र हिन्दूवादी संगठनों से जुड़ा है। इसके चलते अयोध्या पर निर्णय से पहले पुलिस ने उसे बांड भरने के लिए बुलाया। इस पर संगठन के पदाधिकारियों ने पुलिस से बात की और जानकारी दी कि हिमांशु के विरुद्ध किसी भी थाने में कोई प्रकरण दर्ज नहीं है। हिमांशु से मिलकर पुलिस ने न केवल बांड भरने से मना कर दिया बल्कि उसे और कई छात्रों के निर्णय वाले दिन पुलिस की मदद करने को भी कहा। हिमांशु ने बताया कि पुलिस अधिकारी ने कहा हमारे पास फोर्स कम है और सभी स्थानों पर अलर्ट होने से बाहर से फोर्स मंगवाया भी नहीं जा सकता है। ऐसे में आप लोग हमारी क्या मदद कर सकते हैं। इसके बाद दर्जनों छात्रों ने पुलिस के साथ गश्त की। ये न केवल छात्रों बल्कि पुलिस की सकारात्म सोच भी दर्शाता है लेकिन कथित बुद्धिजीवी वातावरण खराब करने के बारे में कुछ नहीं सोच रहे हैं।
Recent Comments