मिशनरियों का सरना की आड़ में आदिवासियों को हिन्दुओं से अलग करने का षड्यंत्र

मिशनरियों का सरना की आड़ में आदिवासियों को हिन्दुओं से अलग करने का षड्यंत्र

2021 की जनगणना में आदिवासियों को सरना दर्ज कराने की मुहिम

रांची

झारखंड में सत्ता परिवर्तन का लाभ उठाने की फिराक में ईसाई मिशनरियों ने सरना धर्म कोड का मुद्दा उठाया है। सरना धर्म कोड की मांग को लेकर पूरे झारखंड में आंदोलन तेज कर दिया गया है। इस आंदोलन के तहत आदिवासियों को हिंदू की बजाए हिंदुओं से अलग सरना माने जाने की मांग की जा रही है। ईसाई मिशनरियों के षड़यंत्र का हिस्सा है जिसमें बिल लंबे समय से आदिवासियों को हिंदुओं से अलग करने का प्रयास कर रहे हैं। किस आंदोलन का नेतृत्व करने वाले ज्यादातर आदिवासी वह हैं जो कि ईसाई धर्म को अपना चुके हैं।

इनकी मांग है कि जनगणना के कॉलम में सरना धर्म के विकल्प को भी जोड़ा जाए। केंद्र सरकार पहले ही इस मांग को अस्वीकार कर चुकी है।  केंद्र का कहना है कि बहुत जनगणना के फॉर्म में धर्म का कोई नया विकल्प नहीं जोड़ेगी क्योंकि इससे देश के अन्य हिस्सों में भी अलग-अलग मांगे उठने लगेंगी। 

क्या है सरना ?

 सरना दरअसल कोई धर्म नहीं बल्कि आदिवासियों के पूजा स्थल का नाम है।  1946 में इसाई ने जुएल आकड़ा के घर पर इस आइयो जनजाति समुदाय के नेताओं के बीच एक बैठक कोई थी जिसमें शर्मा शब्द का पहली बार उपयोग कांग्रेस सांसद जयपाल सिंह बुक गाने किया था। ईसाई मिशनरियां गैर ईसाई आदिवासियों के लिए सौंसार शब्द का इस्तेमाल करती थी। जनजातीय लोगों ने इस शब्द का विरोध किया क्योंकि इसका अर्थ होता है धर्म रहित। इस पर जयपाल सिंह मुंडा ने सरना शब्द सुझाया था क्योंकि क्योंकि गैर ईसाई आदिवासी अपनी पूजा सरना स्थल पर करते थे। सरना धर्म के पक्ष में एक बात और कही जाती है कि आदिवासी शुरू से प्रगति की पूजा करता आया है। वह किसी भी पेड़ पशु या स्थान को अपना देवता मान सकता है उसकी पूजा कर सकता है।  

हिन्दुत्व ही आधार

प्रकृति की पूजा हिंदू धर्म में भी की जाती है। इस तरह से वैदिक धर्म ही जनजातियों के करीब है।वैदिक धर्मावलम्बी समुदाय और जनजातियों के धार्मिक क्रियाकलापों सहित उनके कई इष्ट देवी-देवताओं आदि भी एक-दूसरे के समान हैं। भले ही उन्हें अलग-अलग भाषाओं में भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता हो। उदाहरण के लिए जनजाति जिस देवता को महायदेव, ठाकुरदेव, बूढ़ादेव, पिलचूहड़ाम के रूप में पुकारते और पूजते हैं उसी को वैदिक धर्मावलम्बी समुदाय शिव, महेश, नीलकंठ आदि नामों से सम्बोधित करता और पूजता है।

उसी प्रकार जिस देवी को वैदिक समुदाय ने पार्वती का रूप माना उसको जनजाति समुदाय ने भी परबती, चाला या अरण्यदेवी कहकर पुकारा। अनादिकाल से ‘देवों के देव को महादेव’ कहना सबसे प्रचलित और स्थापित भारतीय सनातन मान्यता और विश्वास है। जनजाति समुदाय भी नि:संदेह सृष्टिकर्ता परमात्मा, ईश्वर, धर्मेस या सिंगबोंगा के बाद महादेव को ही अपना सबसे अधिक करीबी देवता मानता है। 

कड़िया मुंडा ने किया सरना का विरोध

झारखंड की खूंटी लोकसभा सीट से आठ बार के सांसद, केन्द्रीय मंत्री और लोक सभा उपाध्यक्ष रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता करिया मुंडा सरना धर्म का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि कोई धर्म स्थल धर्म नहीं हो सकता है। उनका कहना है कि यदि ईसाई चर्च में पूजा करते हैं तो क्या चर्च धर्म हो गया? इसी तरह से मंदिर में पूजा की जाती है तो क्या मंदिर धर्म हो गया। मुंडा का मानना है कि भोले आदिवासियों को बरगलाने के लिए सरना धर्म कोड की वकालत की जा रही है। 

उन्होंने कहा कि आदिवासियों की बात करने वाले लोगों को उनके हित-अहित का ख्याल रखना चाहिए। सरना धर्म कोड से आदिवासियों को कौन सी सुविधाएं बढ़ जाएंगी? जहां तक आदिवासी संस्कृति की बात है तो इस पर पहले खुद ईमानदार एवं वफादार बनना होगा।

जो खुद चर्च जाते हैं वो सरना की बात कर रहे

सरना की मांग करने वाले उन आदिवासी नेताओं को मुंडा ने आड़े हाथों लिया जो कि बहुत पहले ही ईसाई धर्म अपना चुके हैं। मुंडा ने कहा कि बाहर सरना की बात करें और प्रार्थना करने गिरिजाघर पहुंचे। दोनों कैसे हो सकता है? जिस धर्म संस्कृति को बचाने की हम बात करते हैं, उसके प्रति पहले खुद आस्थावान एवं वफादार होना होगा। ने कहा कि मांगने का अधिकार तो सभी लोगों का है, लेकिन जवाबदेह लोगों को इस पर जरूर मनन करना चाहिए कि वे मांग क्या रहे हैं?

इसमें हासिल क्या हो सकता है? इस तरह की मांग करनेवालों को यह भी पता नहीं है कि सिर्फ झारखंड या इसका कुछ इलाका ही देश नहीं है। कई जाति, धर्म एवं संप्रदाय के लोगों को समेटे हुए भारत एक बड़ा देश है। इसके कई क्षेत्रों में आदिवासी जाति के लोग निवास करते हैं। सरना झारखंड के आदिवासियों का पूजा स्थल है।

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