सत्ता के लिए अपने लोगों को मारना ही कम्युनिस्टों की परंपरा है, चीन के तिएनमेन चौक नरसंहार के 31 साल

सत्ता के लिए अपने लोगों को मारना ही कम्युनिस्टों की परंपरा है, चीन के तिएनमेन चौक नरसंहार के 31 साल

सुचेन्द्र मिश्रा .

दस लाख लोगों की लाशों पर टिकी हुई सत्ता से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं? 1948 से 1951 के बीच चीन में कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए जो खूनी खेला था उसमें दस लाख लोगों की जान गईं थी। इसके बाद जो अस्तित्व में आया वो था एक निरंकुश शासन जिसमें सत्ता से प्रश्न करना तब भी संभव नहीं था और अब भी संभव नहीं है। मतदान तो भूल जाइए।

tiananmen square on 4th june 1989

लेकिन चीन के युवा खून को लगा कि वो इस सत्ता को सच स्वीकार करने के लिए मजबूर कर देंगे। वे एकत्रित हुए, संगठित हुए और निकल पड़े उस आंदोलन के लिए जिसे दुनिया लोकतंत्र समर्थक आंदोलन मानती है। लेकिन चीन के कम्युनिस्टों के लिए ये राजनैतिक अस्थिरता की कोशिश थी जिसे कुचल दिया गया। लेकिन इतने से ही तिएनमेन चौक को नहीं समझा जा सकता हां तिएनमेन चौक चीन और कम्युनिस्टों को समझने के लिए ऐतिहासिक त्रासदी के रूप में उपलब्ध है।

तिएनमेन चौक ही वो स्थान था जहां पर कम्युनिस्ट पार्टी के मायो जेडोंग (माओत्से तुंग) ने लाल झंडा फहरा कर चीन की सत्ता पर कम्युनिस्टों के कब्जे का एलान किया था।

जब माओ चीन कम्युनिस्ट पार्टी में कमजोर पड़ने लगे तो सत्ता की हनक ने सांस्कृतिक क्रांति नामक एक दमनकारी सरकारी आंदोलन प्रारंभ हुआ। इसे समझे बिना तिएनमेन चौक के आंदोलन को नहीं समझा जा सकता है।

सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने और कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर और बाहर अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए माओ जेडांग यानी माओत्से तुंग ने इसकी शुरुआत की थी। इस कथित क्रांति का सबकुछ लाल ही था। माओ की लिटिल रेड बुक पढ़ना जरुरी था, न पढ़ने वालों के लिए रेड गार्ड्स थे और शेष लाल रक्त..! माओ को पता था कि देश की संस्कृति को नष्ट किए बिना वे चीन पर राज नहीं कर पाएगा। इसलिए चीनी संस्कृति को नष्ट करने केे काम में रेड गार्ड्स लगाए गए।

image sourced from national geographic

रेड गार्ड्स और गैंर ऑफ फोर

रेड गार्ड्स ने देश भर में घूमकर सांस्कृतिक विरासत को नष्ट किया। उन्होंने शिक्षकों और बुद्धिजीवियों से पूछताछ की और माओ की अनुसार उत्तर न मिलने पर उन्हें पीटा जाता था। 1.60 करोड़ युवाओं को गाँवों में भेजा गया जिससे वे वहाँ मजदूरी कर सकें और फिर से शिक्षित हों। हजारों अधिकारियों पर देशद्रोही होने का आरोप लगा। राष्ट्रपति लिउ शाओची को माओ के दबाव में पार्टी से निकाल दिया गया और वे गुमनामी और अकेलेपन में मार दिए गए। माओ के उत्तराधिकारी के तौर पर घोषित मार्शल लिन ब्याओ माओ के डर से देश छोड़कर भागे लेकिन एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। इस तरह से माओ की सांस्कृतिक क्रांति ने उनके लिए सत्ता का रास्ता सुगम किया। देश की बात करने वाले माओ की पत्नी ज्यांग चिंग का सत्ता में हस्तक्षेप हो गया और उनके खास लोगों ने एक गुट बनाया जिसे गैंग ऑफ़ फ़ोर के नाम से जाना जाता है। (किचन कैैबिनेट) चीनी जनता का ये उत्पीडन 1976 में माओं की मौत होने तक चला। इसके बाद गैंग ऑफ फोर गिरफ्तार हो गए और इस तरह से सांस्कृतिक क्रांति का भी अंत हो गया।

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यहां खास बात ये ही कि भारतीय कम्युनिस्ट भी इसी माओं से प्रेरणा लेते हैं। माओवादी हिंसा से हम अच्छी तरह परिचित हैं। यही माओ इन नक्सलियों का प्रेरणा पुरुष है।

कम्युनिस्टों की नीतियों के चलते चीन में नीतियों की वजह से चीन में भ्रष्टाचार, वंशवाद, मुद्रास्फीति, महंगाई और नगदी की कमी काफी ज्यादा बढ़ गई। पूरे चीन में नौकरशाही हावी हो गई, नियंत्रण अधिक से अधिक नौकरशाहों के हाथ में था। लोगों में आक्रोश बढ़ता गया। इस आक्रोष का ही परिणाम था चीन का लोकतंत्र समर्थक छात्र आंदोलन।

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फैंग लीजी नामक एक एस्ट्रोफिजिक्स के प्रोफेसर थे वे छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे। उन्होंने खुलकर सरकार की नीतियों की आलोचना की । यही छात्र आंदोलन के लिए आधार बना था। छात्र आंदोलित हुए तो उन्हें व्याप्त असंतोष का लाभ मिला और उन्हें समाज का समर्थन मिलने में परेशानी नहीं हुई।

एक मौत जो चीन की सरकार को भारी पड़ी

1989 में चीन कम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता थे ह्यू याओबांग। वे पार्टी के महासचिव थे। उन्हेें उदारवादी कम्युनिस्ट माना जाता था। उन्होंने छात्रों और बुद्धिजीवियों की मांग को सही बताया। इसके बाद उन्हें बेइज्जत कर पार्टी से निष्कासित कर दिया। छात्र उनके समर्थन में थे। निष्काषन के बाद दिल के दौरे के बाद उनकी मृत्य हो गई। इसके बाद पूरे चीन में छात्रों का गुस्सा चरम पर पहुंच गया। चीन के विश्विद्यालयों में छात्र एकत्रित होने लगे। इसके बाद वे तियानमेन चौक पहुंचकर विरोध प्रदर्शन करने लगे। 16 से 20 अप्रैल का समय इस आंदोलन के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। केवल पांच दिनों में ये आंदोलन पूरे चीन में फैल गया।

ये थी छात्रों की मांग

आंदोलन की मुख्य 7 मांगे थी :

1. ह्यू याओबंग के लोकतंत्र के मॉडल को अपनाया जाए,

2. बुर्जुआ लिबरल हों,

3. नेताओं की संपत्ति को सार्वजनिक किया जाए,

4. प्रेस सेंसरशिप हटाई जाए,

5. शिक्षा के लिए फण्ड की व्यवस्था हो,

6. छात्रों पर लगे सारे रोक हटाई जाए,

बीजिंग स्टूडेंट्स ऑटोनॉमस फेडरेशन

‘अपने आंदोलन को आधार और नाम देने के लिए छात्रों ने बीजिंग स्टूडेंट्स ऑटोनॉमस फेडरेशन’ का गठन किया। तेजी से बदल रहे घटनाक्रम में न केवल कम्युनिस्ट पार्टी के विरोध वाली अन्य गैर कम्युनिस्ट पार्टी इस आंदोलन के समर्थन में आ गई बल्कि सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी में भी इस आंदोलन से गहरी खाई बन गई थी।

कम्युनिस्ट पार्टी में ह्यू याओबंग के स्थान पर जाओ जियांग नए महासचिव बनाए गए लेकिन उन्होंने भी छात्रों की मांग का समर्थन किया। इसके बाद पार्टी लिबरल और हार्डकोर नेताओं के खेमों में बट गई और हालात और भी खराब हो गए।

चीन के सरकारी समाचार पत्र अप्रैल को पीपुल्स डेली ने सभी आंदोलनकारियों को देशद्रोही बताता है। इसके बाद गुस्साए छात्र तिएनमेन चौक पहुंचते हैं और लोकतंत्र समर्थक आंदोलन शुरू हो जाता है। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी ने लोकतंत्र लाने से साफ कर देती है और इस तरह से टकराव का रास्ता खुल जाता है।

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मार्शल लॉ लगाया

धरने में छात्रों के माता-पिता भी शामिल हुए थे और धरना लगभग एक माह चला। इसके बाद चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने 20 मई को मार्शल लॉ लगाया और हथियार बंद सैनिक टैंक जैसे घातक संसाधनों के साथ लोकतंत्र समर्थक छात्र आंदोलन को कुचलने चल पड़े। छात्रों ने सैनिकों से बात की और उन्हें भी इस आंदोलन का समर्थन करने को कहा। कुछ सैनिक छात्रों के समर्थन में आए भी। लेकिन 3 जून की रात में सेना ने निहत्थे लोगों पर गोलीबारी शुरू कर दी। ऐसा बताया गया कि इसमें 30-35 लोग मारे गए हैं। 4 जून सुबह 4 बजे निहत्थे शांति से मार्च कर रहे छात्रों, बच्चों, बुजुर्गों के लिए चीनी सरकार ने बड़े बड़े मिलिट्री टैंक, एयरफोर्स के अनेकों लड़ाकू विमान और हथियारबंद जवानों को तियानमेन चौक पर खड़े कर दिया। फिर से गोलीबारी शुरू की गई, टैंक लोगों के ऊपर चढ़ाएं गए, हेलीकॉप्टर से गोलीबारी की गई।

इस तरह से आंदोलन को कुचल दिया गया। सरकार के अनुसार केवल तीन सौ लोग मरे लेकिन मृतकों की संख्या दस हजार से ज्यादा थी। दुनियाभर का मीडिया पहले ही तिएनमेन चौक में प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन यह घटना विदेशी राजनायिकों के जरिए दुनिया में पहुंची। इसे ही तिएनमेन चौक नरसंहार कहा जाता है। आज इसे 31 वर्ष पूरे हो गए हैं। यही चीन और कम्युनिस्टों का आईना है।

पुनश्च:

अब यही खतरा हांगकांग के लोगों पर मंडरा रहा है। चीन ने ब्रिटेन से हांगकांग हासिल तो कर लिया लेकिन हांगकांग के निवासी चीन के साथ जाने से खुश नहीं हैं। वहां भी आंदोलन हो रहे हैं।

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