शिवाजी के राज्यभिषेक दिवस पर ही क्यों मनाया जाता है हिन्दू साम्राज्य दिवस

शिवाजी के राज्यभिषेक दिवस पर ही क्यों मनाया जाता है हिन्दू साम्राज्य दिवस

सरसंघचलाक डॉ. मोहन भागवत जी ने 2010 में नागपुर में बताया था कारण

ये आलेख सरसंघचालक डॉ. मोहन राव जी भागवत द्वारा हिन्दू साम्राज्य दिवस पर 2010 में दिए गए बौद्धिक का अंश है। यह बौद्धिक नागपुर में हुआ था।

हिंदू साम्राज्य दिवस ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी यह छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का दिवस है। संघ ने इस उत्सव को अपना उत्सव क्यों बनाया इसका आज के वातावरण में जिन्हें ज्ञान नहीं है, जानकारी नहीं है, उन के मन में कई प्रश्न आ सकते हैं। हमारे देश में राजाओं की कमी नहीं है, देश के लिये जिन्होंने लडकर विजय प्राप्त की, ऐसे राजाओं की भी कमी नहीं है। फिर भी, क्यों कि संघ नागपुर में स्थापन हुआ और संघ के प्रारंभ के सब कार्यकर्ता महाराष्ट्र के थे, इसी लिये संघ ने छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का दिन हिंदू साम्राज्य दिनोत्सव बनाया ऐसा नहीं है।

छत्रपति शिवाजी महाराज के समय की परिस्थिति अगर हम देखेंगे तो ध्यान में ये बात आती है कि अपनी आज की परिस्थिति और उस समय की परिस्थिति इसमें बहुत अंशों में समानता है। उस समय जैसे चारों ओर से संकट थे, समाज अत्याचारों से ग्रस्त था, पीड़ित था, वैसे ही आज भी तरह तरह के संकट हैं, और केवल विदेश के और उनकी सामरिक शक्तियों के संकट नहीं है, सब प्रकार के संकट है। उस समय भी ये संकट तो थे ही लेकिन उन संकटों के आगे समाज अपना आत्मविश्वास खो बैठा था। यह सब से बडा संकट था।

मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से इन संकटों का सूत्रपात हुआ। हम लड़ते रहे, लेकिन लडाई में बार बार मार खाते, कटते, पिटते भी रहे। विजय नगर के साम्राज्य का जब लोप हो गया तो समाज में एक निराशा सी व्याप्त हो गई। जैसी आज देखने को मिलती है। समाज के बारे में सोचने वाले प्रामाणिक व्यक्तियों के पास हम जायेंगे, उनके साथ बैठेंगे, सुनेंगे तो वे सब लोग लगभग निराश है। कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती और निराशा का पहिला परिणाम होता है आत्मविश्वास गवाँ बैठना।

वह आत्मविश्वास चला गया। अभी अभी कोलकाता की एक संपूर्ण हिंदू धनी बस्ती में विनाकारण एक मस्जिद बनाने का काम कट्टरपंथी उपद्रवियों ने शुरू किया, शुरू ही किया था तो पहली प्रतिक्रिया हिंदू समाज की क्या हुई? ‘अरे राम, यहाँ पर मस्जिद आ गई! चलो, इस बस्ती को अब छोड़ो!’ वहाँ संघ के स्वयंसेवक है, उन्होंने सब को समझाया, फिर वहाँ प्रतिकार खडा हुआ, यह बात अलग है। लेकिन हिंदुसमाज पहला विचार यह करता है कि आ गये! भागो! शिवाजी के पूर्व के समय में भी ऐसी ही परिस्थिति थी।

अपनी सारी विजिगीषा छोड कर हिंदू समाज हताश हो कर बैठा था। अब हमको विदेशियोंकी चाकरीही करनी है यह मान कर चला था। इस मानसिकता का उत्तम दिग्दर्शन शायद राम गणेश गडकरी जी के ‘शिवसंभव’ नाटक में है।

शिवाजी महाराज के जन्म की कहानी है। जिजामाता गर्भवती है, और गर्भवती स्त्री को विशिष्ट इच्छाएँ होती है खाने, पीने की। कहते है कि आनेवाला बालक जिस स्वभाव का होगा उस प्रकार की इच्छा होती है। मराठी में ‘डोहाळे’ कहते है। हर गर्भवती स्त्री को ऐसी इच्छा होती है। फिर उस की सखी सहेलियाँ उस की इच्छाएँ पूछ कर उसको तृप्त करने का प्रयास करती है। नाटक में प्रसंग है जिजामाता के सहेलियों नें पूछा, ‘क्या इच्छा है?’ तो जिजामाता बताती है कि, ‘मुझे ऐसा लगता है की शेर की सवारी करूँ, और मेरे दो ही हाथ न हों, अठारह हाथ हों और एकेक हाथ में एकेक शस्त्र लेकर पृथ्वीतल पर जहाँ जहाँ राक्षस हैं वहाँ जाकर उन का निःपात करूँ, या सिंहासन पर बैठकर और छत्र चामरादि धारण कर अपने नाम का जयघोष सारी दुनिया में करावाऊँ, इस प्रकार की इच्छाएँ मुझे हो रही है।

सामान्य स्थिति में यह सुनते है तो कितना आनंद होगा कि आनेवाला बालक इस प्रकार का विजिगीषु वृत्ति का है। लेकिन जिजामाता की सहेलियाँ कहती है कि, ‘ये क्या है? ये क्या सोच रही हो तुम? अरे जानती नहीं एक राजा ने ऐसा किया था, उस का क्या हाल हो गया? हम हिंदू है, सिंहासन पर बैठेंगे?” ‘भिकेचे डोहोळे’ ऐसा शब्द मराठी में हैं। भीख माँगने के लक्षण! याने हिंदू ने हाथ में शस्त्र लेकर पराक्रम करने की इच्छा करना या सिंहासन पर बैठने की इच्छा करना यह बरबादी का लक्षण है। इस प्रकार की मानसिकता हिंदुसमाज की बनी थी।

आत्मविश्वासशून्य हो जाते है तो फिर सब प्रकार के दोष आ जाते है। स्वार्थ आ जाता है। आपस में कलह आ जाता है। और इस का लाभ लेकर विदेशी ताकते बढती चली जाती है। बढती चली जाती है और फिर सामान्य लोगों का जीवन दुर्भर हो जाता है।

“अन्न नही, वस्त्र नही, सौख्य नाही जनामध्ये,

आश्रयो पाहता नाही, बुद्धी दे रघुनायका,

माणसा खावया अन्न नाही, अंथरूण पांघरूण ते ही नाही,

घर कराया सामग्री नाही, अखंड चिंतेच्या प्रवाही पडिले लोक,”

(“अन्न नाही, वस्त्र नाही सौख्य नहीं जनों को।

देखने पर आसरा भी न मिले बुद्धि दो रघुनायका।

मनुष्य को खाने को अन्न नहीं

ओढना बिछावन नहीं

घर बनाने की सामग्री नहीं

अखंड चिनता प्रवाह में पडे लोग॥”)

ऐसी उस समय की स्थिति रामदास स्वामी ने वर्णन की है। इस प्रकार की विजिगीषाशून्य, दैन्य युक्त समाज की स्थिति थी। उस समय शिवाजी महाराज के उद्यम से विदेशी आक्रमण के साथ लंबे संघर्ष के बाद भारतीय इतिहास में पहली बार हिंदुओं का अधिकृत विधिसंमत, स्वतंत्र सिंहासन स्थापित हुआ।

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