मंदी नहीं मंदी केे माहौल से बचें

मंदी नहीं मंदी केे माहौल से बचें

मेरे मित्र ने जुलाई के महीने में नई कार खरीदी है। लगभग सवा आठ लाख रुपए की इस कार के लिए उन्होंने ₹तीन लाख रुपए का लोन भी लिया है। कुछ दिन पहले जब मैंने उनसे देश में छाई हुई मंदी की बातों के बारे में चर्चा की तो वे कहने लगे, हां यार यदि मुझे जुलाई में पता होता कि मंदी आ रही है तो मैं कार कभी नहीं खरीदता। मंदी के माहौल में पता नहीं कब नौकरी चली जाए और ऊपर से कार की किस्तें। बहुत डर लग रहा है।


हालांकि मेरे मित्र को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि मंदी कैसे आती है और अगर आ जाती है तो फिर जाती कैसे हैं। उससे बात करके मुझे लगा कि दुर्घटना की तुलना में दुर्घटना का विवरण ज्यादा विभत्स होता है। ऐसा ही कुछ हमारे देश की अर्थव्यवस्था के साथ भी हो रहा है। इसे लेकर राजनीतिक आधार पर दो पक्ष बन गए हैं। एक का यह मानना है कि देश अब तक की भीषण मंदी झेल रहा है। वे इस मंदी की तुलना विश्व युद्ध के बाद की महामंदी से करते हैं। वहीं दूसरा पक्ष इन्हें पूरी तरह से गलत बताते हुए आर्थिक सुस्ती को स्वीकार करता है लेकिन मंदी से इनकार करता है।
अभी कल ही केंद्र सरकार ने कारपोरेट टैक्स में ऐतिहासिक राहत दी। इससे शेयर मार्केट में तेजी आ गई और वही मंदी समर्थकों के मुंह पर भी मुस्कुराहट आ गई। उन्होंने कहा देखो, कहा था ना भीषण मंदी है। इसी के चलते टैक्स कम किया गया है। तो वही मंदी विरोधियों का कहना था यह उपाय अर्थव्यवस्था की तत्कालिक सुस्ती को दूर करेगा और देखिए दिसंबर तक अर्थव्यवस्था फिर से बुलेट ट्रेन की तरह भागने लगेगी। मेरा प्रश्न अब भी वहीं था कि मंदी आती कैसे है और आती है तो जाती कैसे है? अब तक मंदी के समर्थक और मंदी के विरोधी मुझे इस बात का उत्तर नहीं दे पाए हैं।

मंदी समर्थक यह कहते हैं कि मंदी आती है तो जीडीपी कम हो जाती है इससे बेरोजगारी बढ़ जाती है और बाजार से ग्राहक गायब हो जाते हैं। मैंने पूछा कि फिर इतनी भयावह स्थिति पुनः सामान्य कैसे होती है? वो कौनसी जादू की छड़ी होती है जिसके चलते जीडीपी बढ़ जाती है, बेरोजगारी घट जाती है और बाजार ग्राहकों से पट जाता है? लेकिन मुझे इस बात का उत्तर नहीं मिला।


मैं मूल रूप से किसान हूं। और विगत सात-आठ वर्षों से देख रहा हूं कि खेतों में काम करने के लिए अब मजदूर आसानी से नहीं मिलते। ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर युवा नगरीय क्षेत्रों में उद्योग,मॉल आदि में नौकरी करने जाते हैं। वे खेत में काम करना पसंद नहीं करते। यदि युवा पढ़ा लिखा ना हो, तो भी वह शहरी क्षेत्र में निर्माण कार्य में लग जाता है या फिर फैक्ट्री में श्रमिक के रूप में कार्य करने लगता है। मैं जानना चाहता हूं कि यदि फैक्ट्रियों में शिफ्ट में बंद की गई हैं और श्रमिकों को निकाल दिया गया है तो भी खेती किसानी में काम करने वाले मजदूर अब भी क्यों नहीं मिल रहे हैं? क्या यह संभव है कि भीषण मंदी में एक श्रमिक बेरोजगार रहे और फिर भी अपने गांव ना लौटे या खेत में काम करना नापसंद करे?


एक बात और जानना चाहता हूं यह क्या आर्थिक मंदी आएगी तो इस देश के सवा सौ करोड़ लोग प्रतिदिन सुबह मंजन करना बंद कर देंगे या साबुन से नहाना बंद कर देंगे? मैं यह इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि किराने का सामान बेचने वाला आदमी भी मंदी की बात करता है। क्या मंदी आएगी तो सवा सौ करोड़ लोग एक समय खाना खाना शुरु कर देंगे? ठीक वैसा ही है जैसे कि जीएसटी के आने पर अंडे का ठेला लगाने वाला भी ठंड में अंडे का भावएक रुपए का बढ़ाने पर जीएसटी लागू होने का हवाला देता था।


कुल मिलाकर बात माहौल की है और माहौल एक तरह की भेड़ चाल है। आप जिस तरह के लोगों के संपर्क में ज्यादा होंगे आप उसे उस तरह से लेंगे। मंदी का डर दिखाकर शोषण करने वाले मालिक अपने मजदूरों को इंक्रीमेंट देने से मना कर देंगे, उन्हें बोनस नहीं दिया जाएगा। हो सकता है कि नौकरी से निकालने की धमकी भी दे दी जाए। यही वह प्रभाव है जो मंदी का माहौल लाएगा भले ही मंदी आए या ना आए। ये माहौल कईं लोगों का जीवन बर्बाद कर सकता है। इसलिए मुझे लगता है कि हमें मंदीसे ज्यादा मंदी के माहौल से बचने की आवश्यकता है।

लेखक श्याम दांगी अधिवक्ता और राष्ट्रवादी कार्यकर्ता हैं।

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