संघ के बिना कैसा होता लॉकडाउन?
सुचेन्द्र मिश्रा.
लॉक डॉउन कर्फ्यू नहीं हैं और कोरोना भी कॉमन नहीं है। ये दोनों बाते वर्तमान संकट को अनोखा बनाती हैं। भारतीय पुलिस और प्रशासन को कर्फ्यू का पर्याप्त अनुभव है लेकिन लॉकडाउन तो न पुलिस ने देखा, न प्रशासन ने और जनता ने तो कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी। इसके चलते दोनों ही पक्षों के सामने इसके पालन को लेकर समस्याएं खड़ीं हुईं हैं।
ये भी एक सच्चाई है कि भारतीय जनमानस में पुलिस और प्रशासन को लेकर कोई विश्वास की भावना नहीं है। इन्हें आम भारतीय नकारात्मक ही मानकर चलता है और उनकी ये मान्यताएं आधारहीन हैं ऐसा भी नहीं है। हां कहीं-कहीं इन भावनाओं में अतिरेक अवश्य है लेकिन ये दोनों संस्थान विश्वसनीयता के गंभीर संकट से गुजर रहे हैं, यह सत्य है।
सत्ता चाहे जिस की भी रही हो लेकिन पिछले कुछ समय से सत्तारुढ़ दल के कार्यकर्ताओं और यहां तक की जनप्रतिनिधि भी यह कहते हुए पाए गए हैं, कि सरकार में होने के बाद भी अधिकारी उनकी नहीं सुनते। इतना ही नहीं , जनता ने इंदौर जैसे नगर में दीपावली के एक दिन पहले प्रशासनिक सवंवेदनहीनता का उदाहरण देखा और भोगा है। इसके चलते साहब लोग चाहे कितने ही समर्पित दिखें, वे जनमानस का विश्वास जीतने में असफल ही रहते हैं। जनता और पुलिस प्रशासन के बीच का यह रिश्ता और ऊपर से अनदेखा अनजाना कोरोना, यह एक ऐसा समीकरण है, जिसे हल करना सरल नहीं है।
ऐसी अवस्था में एक विश्वसनीय मध्यस्थ की आवश्यकता होती है। जिस पर दोनों पक्षों का विश्वास हो और जो व्यक्तिगत उद्देश्यों की बजाय सामूहिक हित के प्रति समर्पित हो। ऐसी स्थिति में ही लॉकडाउन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एंट्री होती है। ऐसा नहीं है कि लॉकडाउन के लिए संघ को किसी ने आमंत्रित किया हो। राष्ट्रीय और मानवीय कर्त्तव्यों के बोध में संघ ने अभी तक कभी किसी निमंत्रण का इंतजार नहीं किया। कश्मीर के कबाईलियों से लेकर कोरोना तक इसके उदाहरण हैं। ऐसा भी नहीं है कि संघ ने किसी विशेष दल की सरकार को देखकर अपनी भूमिका तय की हो, 1962 का भारत-चीन युद्ध इसका प्रमाण है।
इस तरह से इस संकटकाल में संघ ने किसी की प्रतीक्षा नहीं की। भारत में बहुत सी जनसंख्या रोज कुआ खोदकर गुजारा करने वाली है। लॉकडाउन को लेकर सर्वाधिक चिंता उन्हीं की रही है, लेकिन भारतीय समाज में सेवा एक अनिवार्य अंग है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हर व्यक्ति दूसरे की सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझता है।
अचानक घोषित हुए इस लॉकडाउन के पालन के लिए आवश्यक था कि किसी के सामने भोजन का संकट न आए। सरकार या संविधान ने ये बात किसी को नहीं बताई है, लेकिन संघ के साथ ही बहुत से व्यक्ति और संस्था बिना देरी किए अपने-अपने संसाधनों के साथ मैदान में उतर गए। सरकार के लिए यह राहत की बात थी।
पत्रकार होने के नाते ये जानना एक तरह से मेरी ड्यूटी का हिस्सा है कि लॉकडाउन कैसा चल रहा है? जवाब बहुत संतोषजनक नहीं थे। शिकायतें बहुत थीं और उलाहने अनंत। इसी असंतोष में एक जानकारी और मिली कि इस लॉकडाउन में संघ की भूमिका राहत के राशन और भोजन के पैकेट के अलावा भी बहुत है। मदद मांगी और मिनटों में मिल गई जैसे मामले तो अगणित थे लेकिन यह भी सामने आया कि लॉकडाउन में सिस्टम से ज्यादा भरोसेमंद संघ है।
ऐसा ही विश्वास इलाहाबाद के उस मुस्लिम परिवार को था। जिनकी बेटी इंदौर में पढ़ाई कर रही थी। उस बेटी की डॉक्टर मां ने सहायता के लिए इंदौर के संघ कार्यालय फोन किया और अब उसकी मदद स्वयंसेवक कर रहे हैं। इसी तरह से भीलवाड़ा का नाम कोरोना महामारी में एक उदाहरण की तरह है। ये भी देखा कि भीलवाड़ा में किस तरह सड़क किनारे मेहनत करके जीवन यापन करने वाले गडिया लोहारों ने, न केवल मदद लेना अस्वीकार किया बल्कि स्वयं के पास से 51 हजार रुपए की सहायता राशि भी एकत्रित करके संघ कार्यकर्ताओं को दी। इस राशि से राशन के पैकेट लेकर जरुरतमंदों को बांटे गए। दोनों उदाहरण विश्वास के हैं।
इसके पीछे दशकों का अनुशासन और वर्षों का समर्पण है। जो कि केवल राशन या भोजन नहीं है। आप कर्फ्यू तो जोर जबरदस्ती कर के चला सकते हैं लेकिन लॉकडाउन जोर जबरदस्ती कर के नहीं चलाया जा सकता है। लॉकडाउन में इस विश्वास की कमी को संघ ने पूरा किया।
जनता फ्री है इसलिए सोशल मीडिया सवालों और जवाबों से भरा हुआ है। कई लोग वैचारिक विरोध और विभिन्नता को इस अवसर पर भी अलग नहीं रख पाए। जमात और जमाती निशाने पर हैं। हमेशा की तरह ब्रिटेन के द गॉर्जियन और बीबीसी के लिए यह भारत की छवि पर आघात करने का अवसर है। यदि इस बारे में लिखे गए समाचारों में आप द गॉर्जियन की भाषा आप पढ़ेंगे तो लगेगा कि इसका जन्म केवल भारत से नफरत करने के लिए हुआ है। इसमें खुलल्म-खुल्ला सरकार पर धार्मिक भेदभाव और मुसलमानों को अलग-थलग कर देने के आरोप लगाए गए और कहा गया कि सत्तारूढ़ दल के बड़े नेता इस काम में लगे हुए हैं।
कुल मिलाकर 1947 के विभाजन के आर्किटेक्टों का मन अब भी नहीं भरा है। वो विभाजन के बाद भी विभाजन की संभावनाएं तलाश रहे हैं। वो एक और धार्मिक विभाजन का आधार तैयार करने के एजेंडे में लगे हुए हैं। इसे विफल करना हम सबका कर्त्तव्य है।
27 अप्रैल को परमपूज्यनीय सरसंघचालक जी ने भी अपने संबोधन में कहा कि एक समुदाय के कुछ लोगों के कामों के आधार पर पूरे समुदाय को कटघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता। उन्होंने देश को 130 करोड़ लोगों का परिवार बताया। हालांकि सोशल मीडिया पर इसका उत्तर बैन आरएसएस और टेररिस्ट आरएसएस के हैशटैग के साथ मिला है। यानी विभाजनकारी एजेंडे का होमवर्क तगड़ा है। इसके चलते संघर्ष भी कड़ा है।
कोरोना के जाने के बाद बहुत कुछ बदल जाएगा। लेकिन फिर भी बहुत कुछ ऐसा रह जाएगा जिसे हमें बदलना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि विश्वास की पूंजी के साथ बदलाव के इस साध्य का साधन भी एक ही होगा।
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