एक और मुस्लिम लीग की तैयारी!

एक और मुस्लिम लीग की तैयारी!

 बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि जिस पार्टी का केवल एक प्रत्याशी जीता, उसने कम से कम 40 स्थानों पर जनता दल यू का गणित बिगाड़ा दिया। चुनाव खत्म हो चुके हैं। एनडीए सरकार बनाने की स्थिति में है। भाजपा ने कम सीटें आने के बाद भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की बात कही है लेकिन परिणामों के 2 दिन बीत जाने के बाद भी नीतीश कुमार ने अभी तक चुनाव परिणाम पर या मुख्यमंत्री बनने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

माना जा रहा है कि वे केंद्र की राजनीति में एनडीए में शामिल चिराग पासवान के जनता दल यूनाइटेड के विरोध को लेकर नाराज हैं और उनकी नाराजगी इस बात से और बढ़ी हुई है कि इस मामले में भाजपा का रुख स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा बिहार चुनाव एक और बात के लिए याद किए जाएंगे। इस चुनाव में बाहुबली तस्लीमुद्दीन के बेटे सरफराज आलम और 8 बार के विधायक अब्दुल बारी सिद्दीकी चुनाव हार गए हैं। दोनों ही मुस्लिमों के लिए सुरक्षित सीट से चुनाव लड़े थे।

बिहार की राजनीति में बड़ा कद रखने वाले यह दोनों मुस्लिम नेता केवल ओवैसी की पार्टी के चलते चुनाव हारे हैं। अब्दुल बारी सिद्दीकी की तो स्थिति यह थी कि वे अपनी परंपरागत सीट अलीनगर छोड़कर केओटी विधानसभा सीट पर लड़ने गए थे। वहां भी बड़ी संख्या में मुस्लिम वोट थे। जो सिद्दीकी और एम आई एम के प्रत्याशी के बीच बंट गए और जीत हाथ आई भारतीय जनता पार्टी के मदन मोहन झा के। 

यही हाल जोकीहाट सीट से चुनाव मैदान में उतरे कांग्रेस के सरफराज आलम के रहे। किशनगंज क्षेत्र की यह सीट लंबे समय से तस्लीमुद्दीन और उनके परिवार का गढ़ रही है। इस परिवार की छवि मुस्लिम बाहुबली की है लेकिन सरफराज आलम अपनी परंपरागत सीट से एक अनजान से नेता शाहनवाज से चुनाव हार गए। इस सीट पर भारतीय जनता पार्टी तीसरे नंबर पर रही। इस तरह से ओवैसी की एमआईएम ने 5 सीटें जीती हैं। 5 सीटें जीतना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि मुस्लिम बहुल सीटों से बड़े मुस्लिम चेहरों का हार जाना।

यह तय था कि यदि महागठबंधन की सरकार बनती तो सरफराज आलम और अब्दुल बारी सिद्दीकी कैबिनेट मंत्री बनते लेकिन इसके बावजूद मुस्लिम मतदाताओं ने एमआईएम को चुना। यानी कि मुस्लिम मतदाता बड़े मुस्लिम नेताओं के ऊपर भी एमआईएम को महत्व दे रहे हैं। सोचा जाना चाहिए कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसका सीधा सा जवाब है कि वे पूरे देश में अपने लिए नई मुस्लिम लीग पैदा करने की तैयारी कर रहे हैं।

इसी के चलते आज एमआईएम के पास महाराष्ट्र में भी विधायक और सांसद हैं। आपको याद होगा अकबरुद्दीन ओवैसी ने कहा था 10 मिनट के लिए पुलिस हटा लें फिर बताते हैं। ओवैसी का यह अकेला विवादित बयान नहीं था। दरअसव वे देश के मुसलमानों को संदेश दे रहे थे जो कि अब मुसलमानों तक पहुंच गया है।

ओवैसी ने इस तरह के बयानों से पूरे देश के मुसलमानों को एक संदेश दिया था। मुसलमानों ने संदेश के महत्व को समझा और आज हालत यह है कि जल्द ही ओवैसी की पार्टी राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा लेगी। लेकिन केस स्टडी का मूल बिंदू यह है कि मुसलमान केवल मुस्लिम होने के चलते किसी “सेक्युलर” पार्टी के प्रत्याशी को वोट नहीं करेगा। उसकी प्राथमिकता ओवैसी है। क्योंकि ओवैसी जो भाषा बोल रहे हैं वह बोलने का दम अब न तो कांग्रेस में बचा है, न समाजवादी पार्टी में, न कम्युनिस्टों में और ना ही राष्ट्रीय जनता दल जैसे मुस्लिम परस्त राजनीतिक दल में।

इन राजनीतिक दलों के मुस्लिम प्रत्याशियों को भी तभी वोट मिलेंगे जबकि उस सीट पर एमआईएम का कोई प्रत्याशी नहीं होगा। सवाल यह है कि मुसलमानों के इस राजनीतिक संदेश को क्या हिंदू समझेंगे? 

यह संदेश समझने के लिए आपको बिहार की एक और विधानसभा आमौर के चुनाव परिणाम का विश्लेषण करना चाहिए। यहां महागठबंधन की सरकार में मंत्री रहे कांग्रेस के अब्दुल जलील मस्तान चुनाव लड़ रहे थे। थोड़ा स्पष्ट कर दूं मस्तान वही नेता हैं जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी और कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मोदी के फोटो पर जूते मारने के लिए उकसाया था।

इस हिसाब से मस्तान को मुस्लिमों का “डार्लिंग” होना चाहिए था लेकिन वह भी एमआईएम के सामने दम तोड़ गए। इस सीट पर एमआईएम के अख्तरुल इमान ने जीत दर्ज की। एनडीए की ओर से यह सीट जनता दल यूनाइटेड को मिली थी और उसके प्रत्याशी सबा जफर तीसरे नंबर रहे। जनता दल युनाइटेड को नुकसान पहुंचाने के लिए चुनाव मैदान में उतरे चिराग पासवान यहां एक हजार वोट भी नहीं पा सके। 

अब थोड़ी बात अख्तरुल इमान के बारे में। अख्तरुल इमान राष्ट्रीय जनता दल से विधायक रह चुके हैं और फिलहाल एमआईएम के बिहार प्रदेश अध्यक्ष हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में जबकि जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे, उस समय अख्तरुल इमान जनता दल यूनाइटेड में शामिल हो गए थे।

उन्हें नीतीश ने मुस्लिम बहुल सीट किशनगंज से पार्टी का प्रत्याशी बनाया था। अख्तरुल इमान अंतिम समय पर कांग्रेस उम्मीदवार मोहम्मद असरारुल हक के पक्ष में यह कहते हुए मैदान से हट गए थे कि वह मुस्लिम वोटों का विभाजन नहीं चाहते क्योंकि इससे भाजपा को फायदा होगा। उस समय भाजपा ने यहां से डॉ. दिलीप जायसवाल को मौका दिया था। क्या आपने अपने धर्म के प्रति इतना प्रतिबद्ध कोई अन्य नेता देखा है? यही कारण है कि मुस्लिम आज अख्तरुल इमान को बिहार का टाइगर कहते हैं। 

ओवैसी की पार्टी ने जो तीसरी सीट जीती है वह है बहादुरगंज। यहां से ओवैसी की पार्टी के मोहम्मद अंजार नईमी लगभग 45000 वोटों के अंतर से जीते हैं।  यहां पर दूसरे नंबर पर विकासशील इंसान पार्टी के लखन लाल पंडित रहे। यहां पर बिहार के एक और बड़े मुस्लिम नेता तौसीफ आलम कांग्रेस के टिकट पर मैदान में थे। आलम चार बार के विधायक हैं लेकिन इस बार तीसरे नंबर पर रहे। संदेश स्पष्ट है कि चेहरा कोई भी मुस्लिम हो लेकिन पार्टी तो एमआईएम ही होगी।

ओवैसी के खाते में आई चौथी विधानसभा सीट है बैसी। यहां से उनकी पार्टी के सैयद रुकनुद्दीन ने राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता हाजी अब्दुस सुभान को हराया है।  हालांकि यह दोनों पहले भी विधायक रह चुके हैं। लेकिन अब्दुस सुभान 1990 से चुनाव लड़ते आ रहे हैं। इस नाते से यदि वे जीतते और महागठबंधन की सरकार बनती तो वे निश्चित रूप से मंत्री बनते हैं लेकिन इस सीट पर मुस्लिम मतदाताओं ने अपना एक तरफा समर्थन रुकनुद्दीन को दिया। इस सीट पर एनडीए के विनोद सिंह दूसरे नंबर पर रहे और अब्दुस सुभान तीसरे स्थान पर खिसक गए। 

ओवैसी के खाते में आई पांचवीं सीट है कोचाधामन। यह किशनगंज जिले की विधानसभा है। यहां से जनता दल यूनाइटेड के वरिष्ठ नेता मास्टर मुजाहिद आलम चुनाव लड़ रहे थे लेकिन मुस्लिम मतदाताओं ने एमआईएम के मोहम्मद इजहार अस्फी को चुना। राष्ट्रीय जनता दल ने भी यहां से मोहम्मद शाहिद आलम को टिकट दिया था। आलम भी वरिष्ठ नेता हैं। वे तीसरे स्थान पर रहे।

इन संकेतों पर गौर किए जाने की आवश्यकता है। मुस्लिम मतदाताओं ने अपने लिए एक और मुस्लिम लीग चुन ली है। यानी चुनाव किसी भी राज्य में होंगे उनका वोट एमआईएम को जाएगा। मुस्लिम पहले भी चुनावों में रणनीतिक मतदान के लिए जाने जाते रहे हैं। वे अब तक उन प्रत्याशियों को वोट करते आए हैं जो कि भाजपा के उम्मीदवार पर भारी हो लेकिन अब उन्होंने अपने प्रभाव क्षेत्र वाले इलाकों में अपनी पार्टी तय कर ली है।

संदेश स्पष्ट है कि जिन सीटों पर पर फैसला केवल मुस्लिम मतदाताओं के हाथ है, अब वहां एमआईएम ही जीतेगी। यह एक नई रणनीति है जो कि अभी इतनी असरकारक नहीं दिख रही थी लेकिन सोचिए यदि बिहार में किसी को बहुमत नहीं मिला होता तो यह पांच विधायक किसी को मुख्यमंत्री बनाने के बदले में कैसी सौदेबाजी करते? 

आप समझें या न समझे लेकिन यह सच है कि इस भारतीय लोकतंत्र में एक और मुस्लिम लीग खड़ी करने की कहानी लिख दी गई है लेकिन इस बार इसका नाम होगा मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम!

सुचेन्द्र मिश्रा

ekatma

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