दीनदयाल जी के सिद्धांतों की कसौटी पर मोदी सरकार
पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर विशेष
सुचेन्द्र मिश्रा
राजनीति में जब भी सिद्धांतों की बात होगी तो सबसे पहले जो नाम आएगा वो पं. दीनदयालजी उपाध्याय का ही होगा। वे उस समय राजनीति में आए थे जब कांग्रेस का एकछत्र राज था और देश में कांग्रेस की इस लोकप्रियता के पीछे यह भ्रम था कि देश को आजादी कांग्रेस ने दिलाई है। आज भी बहुतेरे कांग्रेसियों को यही भ्रम है। सिद्धांत सत्ता से बढ़ा होता है यह सोच केवल दीनदयाल जी जैसे महामना की हो सकती है। और 1963 में जौनपुर लोकसभा का उपचुनाव दीनदयाल जी की इस सोच का प्रत्यक्ष प्रमाण था। जिसमें विरोधी प्रत्याशी ने जातिवाद का कार्ड खेला। दीनदयाल जी को भी इसकी सलाह दी गई लेकिन उन्होंने इससे इंकार कर दिया था।
आज भारतीय जनता पार्टी प्रचंड जनसमर्थन के साथ सत्ता में है। भाजपा का वैचारिक आधार दीनदयाल जी ही हैं। पार्टी ने एकात्म मानववाद को अपनी विचारधारा के रूप में स्वीकार किया है। ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि सत्ता में दीनदयाल के विचारों को कितना स्थान मिला है। दीनदयाल जी की जयंती पर यह आंकलन निश्चित रूप से उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगा। यह देखना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकाल के दौरान दीनदयाल जी के सिद्धांतों को कितना पालन किया?
दीनदयाल जी पं. जवाहर लाल नेहरू के द्व्रारा आर्थिक विकास के मॉडल के तौर पर लाए गए प्लानिंग कमीशन के बहुत खिलाफ थे। याद कीजिए 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद श्री नरेंद्र मोदी ने पीएम बनने के बाद बड़ी तत्परता से प्लानिंग कमीशन को समाप्त किया। वे इसके स्थान पर नीति आयोग लेकर आए। इस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने सबसे पहला काम वो किया जो कि इस देश के विकास को लेकर दीनदयाल जी करना चाहते थे।
दीनदयाल जी के रोजगार को लकेर विचार भी बहुत स्पष्ट थे। उनका कहना था कि वास्तव में जो पैदा हुआ है तथा जिसे प्रकृति ने अशक्त नहीं कर दिया है, काम पाने का अधिकारी है। हमारे उपनिषद्कार ने जब यह घोषणा की कि ‘काम करते’ हुए हम सौ वर्ष जीएँ (कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत् समा:।) तो वे यही धारणा लेकर चले कि प्रत्येक को काम मिलेगा इसीलिए शास्त्रकारों ने प्रत्येक के लिए कर्म की व्यवस्था की। इसके लिए उन्होंने शिक्षा में संशोधन किए जाने की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि अक्षर और साहित्य ज्ञान के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि विद्यार्थी को किसी न किसी प्रकार की औद्योगिक शिक्षा दी जाए। औद्योगिक शिक्षा की दृष्टि से यद्यपि विचार बहुत दिनों से हो रहा है किंतु अभी तक सिवाय कुछ औद्योगिक शिक्षा केंद्रों के खोलने के साधारण शिक्षा का मेल औद्योगिक शिक्षा से नहीं बैठाया गया है।
टेक्निकल और वोकेशनल शिक्षा केंद्रों में भी शिक्षा प्राप्त नवयुवक इस योग्य नहीं बन पाते कि वे स्वयं कोई कारोबार शुरू कर सकें। वे भी नौकरी की ही तलाश में घूमते हैं। कारण, जिस प्रकार की शिक्षा उन्हें दी जाती है वह उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के अयोग्य बना देती है। अत: आवश्यक तो यह होगा कि गाँवों के धंधे, खेती और व्यापार के साथ हमें शिक्षा का मेल बैठाना होगा। प्रथमत: शिक्षा की प्रारंभिक एवं माध्यमिक अवस्थाओं में हमें विद्यार्थी को उसके घरेलू धंधे के वातावरण से अलग करने की जरूरत नहीं। बल्कि हम ऐसा प्रबंध करें कि वह उस वातावरण में अधिक-से-अधिक रह सके तथा अज्ञात रूप से वह धंधा सीख सके। धीरे-धीरे हमें यह भी प्रयत्न करना होगा कि वह अपने अभिभावकों का सहयोगी बन सके। माध्यमिक शिक्षा समाप्त करने तक नवयुवक को अपना धंधा भी आ जाना चाहिए। हो सकता है कि उन धंधों की योग्यता के प्रणामपत्र की भी हमें कुछ व्यवस्था करनी पड़े। माध्यमिक शिक्षा तक कुशाग्र बुद्धि सिद्ध होनेवाले नवयुवकों की आगे शिक्षा का प्रबंध उनकी रुचि के अनुसार किया जाए।
क्या कौशल विकास कार्यक्रम इन लक्ष्यों को ध्यान में रखकर नहीं बनाया दया है? कुलमिलाकर दीनदयालजी ने युवाओं को पढ़ाई के साथ-साथ कौशल सिखाने की बात कही थी। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने कौशल विकास पर जो फोकस किया है क्या इसके पहले किसी सरकार ने किया था? इस तरह से इस विषय पर भी मोदी और भाजपा सरकार दीनदयाल जी के विचारों पर चलती दिखाई देती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में कहा कि दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशताब्दी पर भाजपा देश के कई राज्यों में जीतेगी और यह भी सही साबित हुआ है। इतना ही नहीं मेक इन इंडिया के लॉन्च पर कहा कि मैं ये प्रोग्राम उनके चरणों में रखता हूं।
दीनदयाल जी का विचार था कि स्कूल और कॉलेजों में तुरंत ही औद्योगिक एवं व्यावसायिक शिक्षा का प्रबंध कर देना चाहिए। जो ‘अंतिम परीक्षा’ पास करके निकलनेवाले हैं उनके लिए एक वर्ष की औद्योगिक शिक्षा अनिवार्य कर दी जाए। इससे पढ़े-लिखे बेकारों की समस्या के हल की दौड़ में एक वर्ष तुरंत आगे बढ़ जाएँगे तथा संभव है कि एक वर्ष की औद्योगिक शिक्षा प्राप्त नवयुवकों में से बहुत से लोग बाबूगिरी की और न दौड़कर हाथ से रोजी कमाना शुरू कर दें।
दीनदयाल जी ने विरोधी दल के रूप में सरकार को जो विरोध किया वो हमेशा सिद्धांतों के आधार पर किया। वे कहते थे कि नेहरू समाजवाद के नाम पर जो कुछ यूरोप से लाए थे, उसी नेता इस देश में साम्यवादियों को मजबूत किया है। उनका विचार था कि गाँवों की बेकारी को दूर करने के लिए सहायता कार्य प्रारंभ किए जाएँ। सड़के, इमारतें, बाँध, कुएँ और तालाब आदि की बहुत सी योजनाएँ शुरू की जानी चाहिए। याद कीजिए क्या मनरेगा योजना इससे मिलती जुलती नहीं है? यानी कि न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस सरकार को भी उनका दर्शन स्वीकार करना पड़ा।
इसी तरह से महंगाई समस्य पर लिखे एक लेख में उन्होंने कहा था कि सरकार की जिम्मेदारी है कि वो बढ़ती हुई कीमतों से राहत के लिए व्यवस्था करे। इसके लिए उन्होंने निश्चत राशि या राशन के फॉर्मूले की बात की थी। इस पर पहले सबसे पहले मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने काम किया और योजना लागू की थी। इसके बाद केंद्र की तत्कालीन यूूपीए सरकार ने भी इसी तरह की खाद्य सुरक्षा योजना लागू की थी। इस तरह से सिद्ध होता है कि दीनदयालजी और उनके विचारों को विस्मृत नहीं किया जा सकता है और मोदी जी और उनकी सरकार तो कभी नहीं कर सकती।
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